मध्य प्रदेश।
स्कूल शिक्षा विभाग
जुलाई
यूं तो मध्य प्रदेश स्कूल शिक्षा विभाग अपने अतरंगी आदेशों के कारण हमेशा से ही सुर्खियों में रहा है। यहां पर शिक्षक पढ़ाने के अलावा 40 अन्य तरह के काम भी करते हैं और अंत में हर असफलता का ठीकरा भी उन्हीं के माथे मड दिया जाता है, और बेचारा शिक्षक मेहनत करने के बाद भी उसका फल तो दूर बदले में सिर्फ और सिर्फ बदनामी ही झेलता है ।
इसके पीछे प्रारंभिक तौर पर योजनाओं के क्रियान्वयन निर्माण में शिक्षकों की सहभागिता का ना होना है ।योजनाओं को बनाया तो बड़ी ही समझदारी से जाता है,लेकिन जमीन पर क्रियान्वयन सच्चाई के धरातल पर होता है तो यह उतना परिणाम नहीं दे पाते जितना कि इनसे उम्मीद की जाती है । आखिर ऐसा क्यों कभी किसी ने इस पर विचार किया है । मेरे ख्याल से तो नहीं !!
अगर किया होता तो आज प्रदेश ही नहीं देश की शिक्षा व्यवस्था भी इतनी नीचे नहीं गिरी होती
देश के विद्यालयों को, जनकल्याणकारी योजनाओं का केंद्र बना दिया गया है। मुफ्त पुस्तक, मुफ्त खाद्यान्न,मुफ्त साइकिल,मुफ्त यूनिफार्म, स्कॉलरशिप और न जाने कितनी ही योजनाएं विद्यालय के केंद्र में रहकर ही क्रियान्वित की जाती है। और कभी सोचा है इन सब योजनाओं को कागज पर और मूर्त रूप पर पूरा करने वाला और कोई नहीं सिर्फ और सिर्फ शिक्षक होता है क्योंकि अंतिम जिम्मेदार व्यक्ति इन योजनाओं के लिए सरकार उसे ही मानती हैं । तो अब आप ही सोचिए वह कैसे इन सब योजनाओं को पूरा करते हुए शैक्षणिक कार्य में अपना 100% दे पाएगा और उसके ऊपर ना जाने कितने शैक्षणिक भ्रमण कार्य एवं अकादमिक सर्वे।
शिक्षा को अगर जीवित करना है तो हमें सबसे पहले हमारे शिक्षकों को मजबूत करना होगा ।वह दिन लद गए जब मास्टरजी एक झोला टांग कर पूरा जीवन एक ही स्कूल में निकाल लेते थे, अब पढ़ाई बदली है और पढ़ाने के तरीके भी बदलेहै। शिक्षकों के ऊपर गैर जरूरी कई काम ऐसे आ गए हैं जिनका पढ़ाई से कोई सरोकार नहीं है लेकिन फिर भी उन्हें सरकार का आदेश मानकर करना पड़ता है । अब आप ही सोचिए हमारे देश में कितने चुनाव होते हैं पंचायत चुनाव,विधानसभा चुनाव, लोकसभा चुनाव,सोसाइटी के चुनाव,नगर पंचायत के चुनाव, नगर परिषद के चुनाव जल बोर्ड के चुनाव और न जाने कितने ही चुनाव होते हैं तो यह गलत नहीं होगा की हर साल एक चुनाव होता है। लेकिन एक चुनाव में अगर किसी विभाग का अमला सबसे ज्यादा महत्वपूर्ण योगदान देता है तो वह सिर्फ और सिर्फ शिक्षा विभाग है।और शिक्षकों को इस बात पर गर्व है लेकिन यह पूरी प्रक्रिया शैक्षणिक सत्र के बीच में आ जाती है तो वह शिक्षण को बुरी तरह प्रभावित करती है। क्योंकि चुनाव में संवेदनशील प्रक्रिया है जिसमें प्रशिक्षण से लेकर क्रियान्वयन तक एक से डेढ़ महीने तक का समय खर्च हो जाता है । अब आप ही सोचिए अगर कोई शिक्षक चुनाव प्रक्रिया में संलग्न है तो वह कैसे अपना शैक्षणिक कर्म ढंग से निभा पाएगा। लेकिन मैं आभार मानता हूं ऐसे शिक्षकों का जो ऐसे कई कामों में उलझने के पश्चात भी तन मन धन से अपने कर्मों को पूरा करने में लगे हुए हैं ,और देश ही नहीं देश की भी शैक्षणिक व्यवस्था को बरकरार रखे हुए वरना सरकार ने तो देश की शैक्षणिक व्यवस्था को ही निजी करण की ओर धकेल दिया था।
क्या हर घर एक विद्यालय बन सकता है?
खेर, कम से कम सरकार का तो यही मानना है और यह उचित भी है। क्योंकि किसी भी विद्यार्थी के लिए उसका पहला विद्यालय उसका परिवार होता है । लेकिन देश और काल के अनुरूप परिस्थितियां बदलती है हर जगह एक की परिस्थिति का सामना शिक्षक नहीं करता है। कभी-कभी सरकारी फरमान को पूरा करने के चक्कर में से ना चाहते हुए भी खानापूर्ति करनी पड़ती है। मेरा घर मेरा विद्यालय कागजों पर काफी आकर्षक और परिणाम दायक लगता है, लेकिन जब हमने शिक्षकों से बात की तो उन्होंने कई वाजिब कठिनाइयों की ओर हमारा ध्यान आकर्षित किया । जिसमें सबसे महत्वपूर्ण बात निकल कर सामने आई है वह यह है कि सरकारी विद्यालयों में पढ़ने वाले अधिकतर विद्यार्थी गरीब एवं मजदूर वर्ग के होते हैं। उनके पालक भी ज्यादा पढ़े लिखे नहीं होते, तो उनका उनकी पढ़ाई में योगदान की अपेक्षा करना नादानी होगा। लेकिन फिर भी अगर यह मानकर चलें कि वह थोड़ा बहुत सहयोग करते हैं तो इस पूरी कवायद में कोई ठोस परिणाम तो निकल कर सामने आने वाला नहीं है। जिस तरह पढ़ाई विद्यालय में होती है और जो माहौल विद्यालय का होता है वह कभी भी विद्यार्थी अपने घर पर नहीं पा सकता । लेकिन कोरोना के इस काल में जब लर्निंग लोस जैसी बातें सामने आ रही हैं तब सरकार भी चुप तो नहीं बैठ सकती, उसे भी कुछ न कुछ तो करना ही होगा और उसी का परिणाम मेरा घर मेरा विद्यालय योजना है।
तो क्या उम्मीद रखेंगे इस योजना से
सबसे पहले तो हमें इस योजना का विरोध करने की बजाय इसे पूरे मन से लागू करने पर ध्यान देना चाहिए ।
मेरा यह मानना है कि लोग डाउन जुलाई के बाद भी आगे बढ़ेगा। और बच्चे अगर इतने वक्त तक स्कूल से दूर रहेंगे तो निश्चित तौर पर उनकी पढ़ाई पर इसका बुरा प्रभाव पड़ेगा । इन सारी गतिविधियों से कम से कम वे पुस्तकों और शिक्षक के करीबी बने रहेंगे इसका परिणाम यह होगा कि जब भी पढ़ाई शुरू होगी तब शिक्षकों को इतनी मेहनत नहीं करनी होगी।
योजना का परिणाम चाहे कुछ भी निकल कर सामने आए,लेकिन हमें इस बात का ध्यान रखना चाहिए कि सरकार की मंशा साफ है। और शिक्षक अगर थोड़ी सी कोशिश करें तो वह समाज के निचले तबके से आए हुए गरीब और मजदूर वर्ग के बच्चों को भी अच्छी और मुख्यधारा वाली शिक्षा दे सकता है।
शिक्षकों के पास अभी यह सुनहरा मौका है उनकी जो छवि अखबारों में और महकमे में जो बनी है उसे सुधार कर अपने आप को समाज के लिए उपयोगी एवं आवश्यक इकाई के रूप में निर्धारित करें। जिस प्रकार कोरोना किस काल में डॉक्टर, पुलिस वाले एवं सफाई कर्मचारियों ने अपनी छवि को और मजबूत बनाया है ।बस वक्त आ गया है अब शिक्षक समुदाय भी इसेे अवसर के तौर पर ले।
( यहां लेखक के अपने विचार हैं)
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